हर्रई राजमहल: इतिहास, आस्था और सामाजिक सौहार्द का जीता-जागता प्रतीक

छिंदवाड़ा-भारत का इतिहास केवल युद्धों और राजाओं की वीरगाथाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वह उन जीवंत परंपराओं और सांस्कृतिक विरासतों का भी दस्तावेज़ है, जिन्होंने समाज की आत्मा को आकार दिया। मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के हर्रई क्षेत्र का राजमहल और उससे जुड़ी हर्रई जागीर, इसी समृद्ध परंपरा का एक बेजोड़ उदाहरण हैं। यह स्थान न सिर्फ गोंडवाना साम्राज्य की ऐतिहासिक विरासत को सहेजे हुए है, बल्कि आज भी धार्मिक सहिष्णुता, जन-आस्था और सांस्कृतिक एकता का प्रेरक केंद्र बना हुआ है।
हर्रई जागीर की नींव सन 1750 ईस्वी में देवगढ़ के प्रथम राजा जाटवाशाह ने रखी थी। इसका उद्देश्य केवल सत्ता का विस्तार नहीं, बल्कि सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा और सैन्य सहयोग सुनिश्चित करना था। कालांतर में यह जागीर तीन हिस्सों – हर्रई, सोनपुर और प्रतापगढ़ (पगारा) में विभाजित हुई। जागीर का कुल क्षेत्रफल 1597 वर्ग मील था और इसमें 536 गाँव शामिल थे, जिनमें से लगभग 80 गाँव वीरान थे। समय के साथ इसका पुनर्गठन भी हुआ, जिसमें आदेगांव पालक को हर्रई से अलग कर गढ़ा मंडला राज्य को सौंपा गया।
हर्रई जागीर की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि यह अन्य जागीरों की तुलना में अधिक संगठित और प्रभावशाली मानी जाती थी। सन 1902 तक इस क्षेत्र का नियंत्रण आबकारी, पुलिस और वन विभागों पर भी था, जो इसकी प्रशासनिक दक्षता का प्रमाण है।
इस जागीर के शासकों ने केवल राजकीय जिम्मेदारियाँ ही नहीं निभाईं, बल्कि सामाजिक समरसता, संस्कृति संरक्षण और जनकल्याण की मिसाल भी पेश की। यहां शासन की बागडोर ठाकुर जुझारशाह से लेकर वर्तमान पीढ़ी के कुंवर विराट प्रतापशाह तक कई गोंड ठाकुरों के हाथों में रही। इन राजाओं ने बंजर भूमि पर बसाहट की, जनजीवन को व्यवस्थित किया और धार्मिक स्थलों के निर्माण द्वारा लोक आस्था को नया स्वरूप दिया।
हर्रई राजमहल न केवल एक भव्य स्थापत्य है, बल्कि यह आस्था और एकता का प्रतीक स्थल भी है। महल परिसर में स्थित भगवती चंडी माई का मंदिर जहाँ हिंदू समाज की श्रद्धा का केंद्र है, वहीं पास ही मौजूद दरगाह मुस्लिम समाज के लिए आध्यात्मिक स्थल है। यह स्थान गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल पेश करता है, जहाँ धर्म, जाति या वर्ग का कोई भेद नहीं है।
हर्रई का दशहरा महोत्सव यहां की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है। यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक मेलजोल और सांस्कृतिक जीवंतता का उत्सव बन गया है। कलश स्थापना, शस्त्र पूजा, रावण दहन और भव्य शोभायात्राएँ इस आयोजन का प्रमुख आकर्षण होती हैं, जिसमें नगर और ग्रामीण अंचलों से लाखों की संख्या में लोग शामिल होते हैं। यह आयोजन न केवल परंपरा का उत्सव है, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी है।
हर्रई जागीर का झंडा आज भी गोंड समाज के आत्मसम्मान और गर्व का प्रतीक माना जाता है। यह स्थान आज भले ही एक प्रशासनिक इकाई न हो, लेकिन इसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक भूमिका आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। ठाकुर कमलेश प्रतापशाह, जो वर्तमान में अमरवाड़ा विधानसभा से विधायक हैं, इस परंपरा को जनसेवा के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं, वहीं उनके सुपुत्र कुंवर विराट प्रतापशाह जागीर की ऐतिहासिक विरासत और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित रखने का कार्य कर रहे हैं।



